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उजाले की गूँज

कल शाम मैंने उसे फिर देखा,
उसी गली में बड़े से काले चौखट से झांकते हुए .
अन्दर अँधेरा था शायद,
सो कर उठी थी.
उसकी आँखों में अभी भी नींद बाकी थी.
बालों की सूखी उलझी लटें उस्सकी उलझन बयान कर रही थी 
चौखट पे नीचे सीढ़ियों पर, एक दीपक जल रहा था.
वो बस बुझने ही वाला था,
मैंने अपनी हथेलियों के ओट से उसे छिपा लिया.
वो फिर जल उठा .
रौशनी कभी खत्म नहीं होती है...
वो कभी कहीं पे होती है, कभी कहीं पे नहीं.
मैंने ऊपर देखा वो जा चुकी थी,
मै अभी भी वो दीपक के पास खड़ा हूँ,
शायद वो चौखट पे ए...दिखे मुझको. 

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रिश्तों के पन्ने... 

एक लकीर है ज़हन में
जब भी खींचता हूँ
स्याही खत्म हो जाती है
सिर्फ कागज़ पे, सूखी कलम के
खरोन्चों के निशान नज़र आते है... 

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अकेले इस बारिश में ...

फिर  आज  बूंदों  की आवाज़  से  नींद  खुली 
ये  बम्बई  की  बारिश  भी ...
कभी  उस  छोटे  से  बच्चे  के  जैसे  लगती  है 
जो  अपनी   मुट्ठी  में  इमाम साहब   के  दिए  हुए 
एलची  दाने  छुपाये   रहता  है ... 
और दोस्तों  से  कहता  है  की  खतम्म  हो  गए .
ये  बदल  रोज़  छाते  है ,ये  बारिश  रोज़  है  होती , 
मै  जितना   भीग  लूं  बारिश  में लेकिन  तबीयत  तर्र  नहीं
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खुशियों के टुकड़े...
आज  कल  एक  कोयल  रोज़  मुन्न्देर  पे  बैठती  है
इन  गर्मियों  की  सुभे  जब 
अलसाये  हुए  गर्म  बैठक का  दरवाज़ा  खोलता  हूँ 
बहार  की  मुलायम  ताज़ा  ठंढक के  साथ 
उसकी आवाज़  का  इंतज़ार  रहता  है ….
तभी  वो  बोल  उठती  है .
सूरज तो निकल चुका होता है कही..
पर सवेरा तो अब होता है 
खुशियाँ आज कल छोटे पच्केट में आती है …
समेटता हूँ बारिश में गिरे ओलों की तरेह खुशियाँ 
वो  हाथ आती है फिर पिघल के खत्म होजाती है 

1 comment:

navaldeep singh said...

क्यूँ मैं उन अनजानी राहों में
सही रास्तों को ढूंढता था ,
क्यूँ सोचता था मैं की मिल जाएगी वो मंजिल
जिसे मैं खोजता था

क्यूँ एक हरे पत्ते को साथ अपने रखता था ,
उसके रंग को कैसे अपना समझ सकता था

रौशनी जो पल भर के लिए आई थी उसे इतना जल्दी क्यूँ जाना था
मैंने की थी गलती ....................................
या उसे मुझे सताना था

क्या पानी की कुछ बूंदे इतना डराती हैं
मिलता नहीं कईयों को ..................
और कुछ जिंदगियां बाढ़ में बह जाती हैं

नीला नीला आसमान आग में बदल जाता है
जब कोई जहाज़ वहीँ पर नष्ट हो जाता है

इतनी आसन नहीं है ज़िन्दगी जितनी समझता था मैं
दुःख के लम्हों में हँसता रहता था मैं

मगर ..................... क्या वो दुःख था
या हसी न आये जिसमे ऐसा सुख था

रोया था मैं कभी
पर शहीद-ए-आज़म के घरवालो से ज्यादा नहीं
खुश हुआ था मैं भी
लेकिन नए आज़ाद भारत के रहने वालों से ज्यादा नहीं

हूँ मैं भी एक इंसान उन्ही की तरह ,
दिल मेरा भी डरता है खून से ,
हूँ मैं भी एक इंसान उन्ही की तरह ,
दिल मेरा भी डरता है खून से
लेकिन समझ चूका हूँ काम होता है तभी जब हो जूनून से